नरेन्द्र मोदी ने ठीक कहा है कि नेहरू ने जनरल थिम्मैया और करियप्पा को इज्जत नहीं बख्शी
- By : Anirban Ganguly
- Category : Articles
तथ्य ये है कि नेहरू और कृष्ण मेनन दोनों ने जेनरल थिम्मैया का अपमान किया था और कृष्ण मेनन के बर्ताव ही के कारण जेनरल थिम्मैया ने इस्तीफा दिया
इतिहास के पन्नों में छुपे चले आ रहे कुछ तथ्यों को कल जैसे ही नरेन्द्र मोदी ने सबके सामने रखा एक परिवार के पिट्ठूओं ने उनपर हमला बोलना शुरू कर दिया. बीते रोज प्रधानमंत्री मोदी ने कर्नाटक में चुनाव-प्रचार के दौरान जेनरल थिम्मैया का जिक्र किया था और ये लोग उस जिक्र पर नुक्ताचीनी करने में जुट गये. तथ्य ये है कि नेहरू और कृष्ण मेनन दोनों ने जेनरल थिम्मैया का अपमान किया था और कृष्ण मेनन के बर्ताव ही के कारण जेनरल थिम्मैया ने इस्तीफा दिया. इस तथ्य पर किसी किस्म की लीपापोती नहीं की जा सकती. मोदी ने सही कहा कि थिम्मैया ने 1948 में पाकिस्तान को हराया था. झूठे स्वराजियों को यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि ‘टिम्मी (थिम्मैया) ने 1948 में कश्मीर में गरजती बंदूकों और बरसती गोलियों के बीच बेमिसाल साहस और जुझारूपन का परिचय दिया और उन्होंने तगड़ा हमला बोलते हुए 1956 में कच्छ के छद बेट से पाकिस्तानियों को खदेड़ा था जबकि उस वक्त मंत्रिमंडल ऐसा कर दिखाने की योजना बनाने के लिए बहस करने में उलझी हुई थी.’
तो ये बात बिल्कुल दुरुस्त है कि थिम्मैया ने पाकिस्तान फौज को 1948 में हराया और 1956 में भी. कृष्णमेनन के साथ उनका झगड़ा 1959 में हुआ था. उस वक्त तक वे सिर्फ तमगाधारी फौजी भर नहीं थे बल्कि चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ बन चुके थे और अच्छी खासी शोहरत भी हासिल हो चुकी थी. सो मोदी ने ठीक ही कहा कि थिम्मैया ने पाकिस्तान को हराया था. और यहां ध्यान रखें कि मोदी अपने स्वभाव से ही कामदार हैं, वे कोई नामदार स्वराजी या इतिहासकार नहीं जो बुद्धि के विलास में सिगरेट के सुट्टे या फिर सिगार का धुआं उड़ाता अपना वक्त गुजारता है, सो मोदी के तर्क तनिक फैलाव लिए होते हैं, हां उनमें इतिहास को लेकर कोई गलती नहीं होती. अब दुर्भाग्य कहिए जो मोदी ने अपने इतिहास का ज्ञान और पाठ के नीचे फुटनोट लगाने की तजबीज हम जैसे कुछ लोगों की तरह किसी वॉर कॉलेज या विदेश के किसी संस्थान के बड़े भवन या क्लासरूम में रहकर नहीं सीखी, सो ‘नामदार’ उनका मजाक बना सकते हैं, भले ही मोदी के तर्क और उन तर्कों का तेवर बिल्कुल शब्द के सबसे सटीक अर्थों में अपने निशाने पर लगा हो!
जाने-माने पत्रकार और भारत के बारे में गहरी सूझ रखने वाले पर्यवेक्षक, प्रसिद्ध दुर्गा दास ने आधुनिक भारत पर केंद्रित अपने एक विस्तृत अध्ययन में लिखा है कि राज्यपालों के एक सम्मेलन में बतौर चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ थिम्मैया ने आशंका जतायी थी कि चीन का हमला हो सकता है. तब नेहरू ने इस आशंका को एकदम हल्के में लेते हुए थिम्मैया पर नाराजगी जाहिर की थी.
नेहरू के शासन के वक्त पर विस्तार से चर्चा करने वाली अपनी किताब नेहरू : ए ट्रब्ल्ड लेगेसी में प्रसिद्ध विद्वान आरएनपी सिंह ने एक पूरा अध्याय ही आजादी के बाद के दिनों (1947-1962) के भारत में अपनायी गई रक्षानीति पर लिखा है. इस अध्याय में आरएनपी सिंह का तर्क है, ‘जेनरल थिम्मैया के इस्तीफे के प्रकरण में नेहरू ने जो रुख अपनाया उससे सशस्त्र सेनाओं के अनुशासन और आत्मविश्वास को गहरा आघात लगा.’
थिम्मैया का इस्तीफा ‘रक्षामंत्री वी के कृष्णमेनन’ के प्रति विरोध जताते हुए 1 सितंबर 1959 को हुआ था. कृष्णमेनन का बर्ताव ‘अशालीन था और उन्होंने फौज को बेहतर ढंग से तैयार रखने’ की थिम्मैया की योजना को बारंबार खारिज किया था. नेहरू को इस बात का पता था कि ‘चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ और रक्षामंत्री के बीच रिश्तों में तनाव’ है. लेकिन उन्होंने इस मसले के समाधान या फिर थिम्मैया को मनाने की जरा भी कोशिश नहीं की. जाहिर है, नेहरू कृष्णमेनन को बहुत ज्यादा पसंद करते थे और बड़े हद तक कृष्णमेनन पर निर्भर भी थे सो बात जब रक्षा मामलों और उससे जुड़ी चुनौतियों की आई तो इन दो वजहों से नेहरू मसले पर स्वतंत्र रुप से सोच-विचार ना कर सके. प्रधानमंत्री ने मात्र इतना भर किया कि संसद पहुंचे और बताया कि चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ ने इस्तीफा दे दिया है और वह भी एक ऐसे हल्के-फुल्के मसले पर ‘जो खास मायने नहीं रखता, जो बस स्वभाव के बेमेल होने से की वजह से पैदा टकराहट की उपज भर है.’
कर्नाटक की सरजमीं के सबसे चमकदार सपूतों में शुमार और भारत के एक महानतम जेनरल ने इस्तीफा दिया था और ऐसे इस्तीफे पर नेहरू का अंदाज कितना गैर-संजीदा था! दुर्गा दास ने लिखा, ‘अगर प्रधानमंत्री चीफ ऑफ आर्मी स्टॉफ को ओछा ठहरा रहे हैं, उनका अपमान कर रहे हैं तो साथ ही वे इस तथ्य की भी अनदेखी कर रहे हैं कि जेनरल के इस्तीफे की एक जायज वजह है और ये वजह एक ऐसे वक्त में जब देश की सीमाओं पर खतरे सिर उठा रहे हैं, फौज की कारअमली और अनुशासन के लिहाज से बहुत मानीखेज है.’ इस घड़ी 1962 कोई बहुत दूर नहीं था और 1962 के साल ने साबित किया कि जेनरल थिम्मैया आने वाले वक्त का अनुमान लगाने के लिहाज से कितने सही थे.
नेहरू को जब आगाह किया गया कि सेना और इसके ढांचे तथा इसमें होने वाली नियुक्तियों में राजनीति को तरजीह दी जा रही है तो उनका तेवर इतना तल्ख था कि एक अन्य मौके पर जेनरल करियप्पा ने दर्ज किया, ‘सेना में धीरे-धीरे राजनीति की घुसपैठ होने लगी है’ और नेहरु ने पलटकर जवाब दिया, ‘जेनरल करियप्पा को जो बातें पसंद नहीं उसे वे राजनीति कहते हैं.’
मोदी ने वहां निशाना मारा है जहां लगने पर सबसे ज्यादा दुखता है और उन्होंने इतिहास की एक सच्चाई बयान की है कि नेहरू ने जेनरल थिम्मैया का अपमान किया था. नेहरू के पड़नाती राहुल गांधी का सशस्त्र सेनाओं को लेकर निन्दा-पुराण जारी है, वे सर्जिकल स्ट्राइक की सच्चाई पर सवाल उठाते हुए लगातार सेना की शूरता का अपमान कर रहे हैं और ऐसा करके वे उन साजिश-मिजाज तत्वों की मदद कर रहे हैं जो कायराना नक्सल हमले या आतंकवादी घटनाओं में हमारे सुरक्षाबलों की जान जाने पर जश्न मनाते हैं.
मुझे इस बात की खुशी है कि मोदी समय-समय पर हमारे हालिया इतिहास के अहम तथ्यों को लोगों के सामने लाते हैं ताकि हमारे कुछ महानतम देशभक्तों के साथ एक दंभी और भ्रमित परिवार के हाथों भेदभाव का जो बर्ताव हुआ वह हमारे गर्वीले और महान राष्ट्र की सामूहिक चेतना में हमेशा जिन्दा रहे.